Friday 6 January 2012

गीत

इन पलकों पे अब खाब सुहाने,
 आने जाने छूट गए ,
कुछ दर्द उठे जो दिल में नए
 तो रोग पुराने छूट गए ..

हमको भी शिकायत थी लाजिम ,
बेदर्द ज़माने से आखिर,
कुछ ढूँढने हम जो निकले नया
तो यार पुराने रूठ गए,

एक उम्र लगा कर साधा जिसे,
नज़रों में बसा के रखा था
जब तीर मेरा तरकश से चला
तो सारे निशाने चूक गए,

मंज्धार में हम तो थे नादाँ,
आती न थी लहरों की भी जुबां,
बाकश्ती यहाँ जो उतरे थे ,
कितने ही सयाने डूब गए,

ये आँसू भी एक तूफां है ,
मचले हैं फिर से देखो ना,
अब याद तुम्हारी आई है,
आखों के मुहाने टूट गए..
.इन पलकों पे अब ..

गीत

टुकड़ों की खनक अब है हममें.
.धड़कन की तरह सासों की तरह..
सब मुझको झूठे लगते हैं
 क्यों तेरे हसीं वादों की तरह....

मैं तुमको भूल न पाऊँगा
ये सच है माना अपने लिए
पर तेरे शहर में आऊंगा
कुछ भूली हुई यादो की तरह..

हमने तो सजाया घर अपना
 गुलशन के प्यारे फूलों से
बस आख खुली और बिखर गए,
हम अपने इन्ही खाबों की तरह...

एक शोर हमारे भीतर भी
 उठती है मगर दब जाती है
 हम झुक कर माँगा करते हैं
 तुम्हे अब भी फरियादों की तरह...

LOOKING BACK

The brittle glasses filled with colorful magic,
Do have the power to hold hammers of stance??
Several days pitiful and countless nights tragic,
Life goes on and goes on, is the nature’s essence...

            Tears slipping out of the corners of eyes,
            Hinder and Come across the ways of breath
            It’s thorny to walk the ways ahead as nuisance...
            Life goes on and goes on, is the nature’s essence...


 Thy words echo and revolve round within,
I can feel you even in this dead silence...
why the incomplete search never ends, but
Life goes on and goes on, is the nature’s essence...


            Time flows, the pain remains and never eases,
            agony remains same, memories of bygone days linger,
            wafting to and fro playing with an unceasing romance,
            Life goes on and goes on, is the nature’s essence...

गीत

धुंद जब कांच पे जम जाती है..
उँगलियाँ नाम तेरा लिखती हैं..
वो हसीं लम्हे तेरी हुस्नो अदा
संग संग याद बनके चलती है ..
सर्द वादी में काटें तनहा सफ़र
तेरी सासों की हरारत चाहे.
मै कहूँ  दिल की ख्वाहिशें अब तो   .
पास आने की दुआ करती है
अब्र के रंग में तेरा चेहरा
ढूढे हैं निगाहें दूर कहीं

अक्स तेरा मुझे यु छु जाए
आरजू ठंडी आहे भारती है
अबके थामा जो तेरा हाथ सनम
छोड़ कर दूर न जायेंगे कभी
सच कहूँ अब तो दिल की धड़कन भी
बीच के फसलों से डरती है ..

मुक्तक

वो कहते हैं भूल जा मुझको रुसवाई मंजूर नहीं
साथ तुम्हारा मिल न सका अब तन्हाई मंजूर नहीं
क्या प्रेम सबकुछ पाना ही एकमात्र लक्ष्य था अपने लिए?
इस रौशनी में कैसे कह दूँ परछाई मंजूर नहीं ..

आवा-जाही

आप कई दिनों से यहाँ आ कर यु ही लौट जाते हैं शायद पुराने पन्ने खोजने मुश्किल हो गए हैं इन रोजमर्रा की ढेरों से, पर यहाँ से लौटते हुए एक खामोश सी मुस्कान जो होठों पे खिल जाती है..बड़ी प्यारी लगती है.
याद  है, जब एक पेंसिल और कागज के टुकड़े पे घंटो कट जाया करते थे, किसी सफ्हे पर अटक कर नींद आ जाती थी और खाबों की टहनियों से उतरते हुए कवितायेँ  पूरी भी हो जाती थी. कई दिनों तक नयी रचनाये बुशर्ट की जेब में मन के बिलकुल करीब और इन्हें गुनगुनाते होठ न जाने कौन सी उर्जा देते थे, कि अपनी बेरोजगारी एक वरदान लगती थी.
पाटलिपुत्र की असूर्यम्पश्य संकरी गलियां और ढलती शामों में कच्ची पक्की सड़के नापना आज भी सबसे हसीं यादों में से एक है, आज बड़ा मन कर रहा है दौड़ कर लौट जाऊं वही जहा लिखना छुट गया था, इसी कोशिश में ये ब्लॉग रजिस्टर किया शायद वो छुटा हुवा शिरा मिल जाये और बुन सकूँ कुछ नए ताने बाने.
              आभार .....रंजन